Hate Death || मृत्युभोज से नफरत क्यों | पाखंड पर प्रहार प्रेमाराम सियाग
Hate Death मृत्युभोज को लेकर बहुत गालियां खाई है। किसी और ने नहीं अपने ही समाज के लोगों ने दी है।बुजुर्गों ने परंपरा के नाम पर व युवाओं ने धर्म के नाम पर मुझे कोसा है।
मैंने आज तक स्वीकार किया है कि जो कुछ भी हूँ वो अपने समाज की वजह से हूँ। अगर समाज के साथ खड़ा हूँ तो समाज का प्यार है और समाज के खिलाफ जा रहा हूँ तो या तो उन्होंने मुझे खुला सोचने का मंच उपलब्ध करवाया है या प्रोग्रेसिव बात करने पर बगावत को मजबूर करने की मेहरबानी की है।
Hate Death मैंने मेरे समाज से आजतक कुछ नहीं मांगा। मुझे किसी भी प्रकार की मदद नहीं चाहिए। आपकी मेहरबानी से, सहयोग से उस स्तर पर पहुंच चुका हूँ कि एकाकी जीवन जी लूंगा लेकिन किसी के सामने मदद को हाथ बढ़ाकर समाज को कभी शर्मिंदा नहीं करूंगा।
एक विनती की थी। इस मृत्युभोज से समाज को मुक्ति दे दो। राजस्थान में Hate Death रोकथाम अधिनियम पास करवाने के लिए हमारे ही समाज के पुरखों ने लड़ाइयां लड़ी थी और कानून बनवाया था। पुरखों की बात मानकर उसको लागू करवा दो। समाज से कोई इतनी बड़ी मांग नहीं कर रहा हूँ कि देने में सक्षम नहीं है।
जब मेरे पिताजी गए तब सिर्फ डेढ़ साल का था। मेरे पिताजी के पीछे Hate Death किया गया था।क्षमता से ज्यादा चीनी घोली गई थी। मेरे जैसे अबोध बालक को पता ही नहीं था कि क्या हो रहा है ?उसकी सजा मेरी माँ ने भुगती थी। आज माँ किसी की मौत की खबर देती है तो तुरंत बहाना बनाकर फोन काट देता हूँ। खुद को तैयार करके दुबारा 2 घंटे बाद कॉल करके कहता हूँ माँ तबियत कैसी है ?
ऐसी महामारी है कि जिंदा इंसानों को तो नोचती ही है बल्कि दशकों तक हमारे जैसे पार पाए लोगों को रुलाती है। मैं उम्र के अंतिम पड़ाव पर मेरी माँ को कतई यह बताने को राजी नहीं हूँ कि तुमने जो दर्द भोगा है उसका गुनहगार तो समाज है मैं तो सिर्फ उस दर्द को कम करने का निमित मात्र हूँ। मेरा किसी धर्म व संस्कृति से कोई विरोध नहीं है। किसी परंपरा से कोई नाराजगी नहीं है।
अगर कोई धर्म, संस्कृति, परंपरा इंसानियत के खिलाफ है तो मैं उसके खिलाफ खड़ा खुद को पाता हूँ।
इस कोरोना काल मे भी जो अपनो की अर्थी को कंधों देने नहीं गए वो मृत्युभोज खाने को पहुंच गए।किसी बुजुर्ग की मौत पर जो खुद को रिश्तेदार / मददगार कहते है, खाने को बेताब हो वो समाज का हिस्सा कभी नहीं हो सकते। 200 रुपये की ड्रेस, 1100 रुपये की दक्षिणा व सब्जी-पूड़ी-मिठाई को लेकर रिश्तेदार-बहन/बेटियां-पंडित आपस मे जूतमपैजार होते है वो न परंपरा है न कोई धर्म।यह शुद्ध सौदेबाजी है।
चित्रण देखिये! माँ की अर्थी को कोई कंधा देने नहीं आया। अकेली बेटी जैसे-तैसे करके लाश को ठिकाने लगाकर आई। श्राद्ध के दिन 150 लोग जमा हो गए!
क्या किसी की मौत के बाद तुम मिठाई खाकर खुद को सामाजिक कहोगे ? क्या मेरी माँग को नाजायज बताकर तुम समाज के कर्णधार होने का दावा करके कभी चैन की नींद सो पाओगे ? अगर इंसान हो व संवेदना जिंदा है तो कभी नहीं।
लेखक के अपने निजी विचार …..
प्रेमसिंह सियाग… की ✍️ से
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